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Sunday, 21 May 2017

अच्छा हुआ जो हम इंसान नही हैं


आज बन्दर और बन्दरिया के विवाह की वर्षगांठ थी ।
बन्दरिया बड़ी खुश थी । एक नज़र उसने अपने परिवार
पर डाली । तीन प्यारे-प्यारे बच्चे , नाज उठाने वाला
साथी , हर सुख-दु:ख में साथ देने वाली बन्दरों की टोली ।
पर फिर भी मन उदास है । सोचने लगी - "काश !
मैं भी मनुष्य होती तो कितना अच्छा होता !
आज केक काटकर सालगिरह मनाते ,  दोस्तों के
साथ पार्टी करते, हाय ! सच में कितना मजा आता !
  बन्दर ने अपनी बन्दरिया को देखकर तुरन्त भांप
लिया कि इसके दिमाग में जरुर कोई ख्याली पुलाव
पक रहा है ।
उसने तुरन्त टोका - "अजी , सुनती हो ! ये दिन में
सपने देखना बन्द करो । जरा अपने बच्चों को भी
देख लो, जाने कहाँ भटक रहे हैं ?
मैं जा रहा हूँ बस्ती में कुछ खाने का सामान लेकर
आऊँगा तेरे लिए । आज तुम्हें कुछ अच्छा खिलाने
का मन कर रहा है मेरा ।
बन्दरिया बुरा सा मुँह बनाकर चल दी अपने बच्चों
के पीछे । जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था, उसका पारा
भी चढ़ रहा था । अच्छे पकवान के विषय में सोचती
तो मुँह में पानी आ जाता ।
"पता नहीं मेरा बन्दर आज मुझे क्या खिलाने वाला है ?
अभी तक नहीं आया ।" जैसे ही उसे अपना बन्दर
आता दिखा झट से पहुँच गई उसके पास ।
बोली - "क्या लाए हो जी ! मेरे लिए । दो ना,
मुझे बड़ी भूख लगी है ।
ये क्या तुम तो खाली हाथ आ गये !"
  बन्दर ने कहा - "हाँ , कुछ नहीं मिला ।
  यहीं जंगल से कुछ लाता हूँ ।"
  बन्दरिया नाराज होकर बोली - "नहीं चाहिए मुझे
कुछ भी । सुबह तो मजनू बन रहे थे, अब साधु क्यों
बन गए ?"
  बन्दर - "अरी, भाग्यवान ! जरा चुप भी रह लिया कर ।
पूरे दिन कच-कच करती रहती हो ।"
  बन्दरिया - "हाँ-हाँ ! क्यों नहीं , मैं ही ज्यादा बोलती हूँ ।
पूरा दिन तुम्हारे परिवार की देखरेख करती हूँ ।
तुम्हारे बच्चों के आगे-पीछे दौड़ती रहती हूँ ।
इसने उसकी टांग खींची , उसने इसकी कान खींची,
सारा दिन झगड़े सुलझाती रहती हूँ ।"
  बन्दर - "अब बस भी कर, मुँह बन्द करेगी, तभी तो
मैं कुछ बोलूँगा । गया था मैं तेरे लिए पकवान लाने
शर्मा जी की छत पर । रसोई की खिड़की से एक आलू
का परांठा झटक भी लिया था मैंने । पर तभी शर्मा जी
की बड़ी बहू की आवाज़ सुनाई पड़ी . .
"अरी, अम्मा जी ! अब क्या बताऊँ,
ये और बच्चे नाश्ता कर चुके हैं । मैंने भी खा लिया है
और आपके लिए भी एक परांठा रखा था मैंने ।
पर, खिड़की से बन्दर उठा ले गया । अब क्या करुँ ?
फिर से चुल्हा चौंका तो नहीं कर सकती मैं ।
आप देवरानी जी के वहाँ जाकर खा लें ।"
अम्मा ने रुँधाए से स्वर में कहा -
  "पर मुझे दवा खानी है, बेटा !"
  बहू ने तुरन्त पलटकर कहा - तो मैं क्या करुँ ?
  अम्मा जी ! वैसे भी आप शायद भूल गयीं हैं , आज से आपको वहीं खाना है ।
एक महीना पूरा हो गया है आपको मेरे यहाँ खाते हुए ।
देवरानी जी तो शुरु से ही चालाक है वो नहीं आयेंगी
आपको बुलाने । पर तय तो यही हुआ था कि एक
महीना आप यहाँ खायेंगी और एक महीना वहाँ ।"
अम्मा जी की आँखों में आँसू थे, वे बोल नहीं पा रहीं थीं ।
       बड़ी बहू फिर बोली - "ठीक है,
अभी नहीं जाना चाहती तो रुक जाईये ।
मैं दो घण्टे बाद दोपहर का भोजन बनाऊँगी,
                तब खा लीजिएगा ।"
   बन्दर ने बन्दरिया से कहा कि "भाग्यवान !
मुझसे यह सब देखा नहीं गया और मैंने परांठा
        वहीं अम्मा जी के सामने गिरा दिया ।"
*बन्दरिया की आँखों से आँसू बहने लगे ।*
*उसे अपने बन्दर पर बड़ा गर्व हो रहा था और बोली -*
*"ऐसे घर का अन्न हम नहीं खायेंगे, जहाँ माँ को बोझ*
*समझते हैं* । *अच्छा हुआ जो हम इन्सान नहीं हैं*
    

by sonu singh gautam


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